केवल स्टडी सर्किल में रहना और अपने किये गए अध्ययन को लागू करने में बहुत फर्क होता है |(भले ही सार्वजानिक रूप में नहीं )जो हम पढ़ते है और समझते है बल्कि हम जो पढ़ाते भी है उसे भी लागू करने में संकोच ही बना रहता है |उसे बिना इस भय के की हमारी मौलिकता और अनन्यता का क्या होगा उसका विस्तार करने मे स्वतंत्र बुद्धि का आग्रह नहीं होता | कभी -कभी वह विषय केवल पाठ्यक्रम तक ही सिमित रहता है उसके सूक्ष्म बिन्दुओं को प्रायोगिक रूप से लागू करना त्वरित रूप से तो संभव नहीं हो पाता| कोई भी पुस्तक क्या केवल पढ़ने अथवा पढ़ाने तक ही सिमित रखी जाय ?या फिर स्टडी सर्किल में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने तक ?क्या उसे लागू करने और उस पर विमर्श करने पर विचार नहीं हो ?जिससे विचारों का आदान प्रदान भी होगा है और पुस्तक के कई ऐसे पहलू बन जाय जो विमर्श करते -करते स्वयं आत्मसात भी हो होने लगे |अक्सर हम 'विचारधारा' और 'पथ' में अपनी सीमाओं को बाँध देते है |जिसके चलते कभी -कभी कुछ अच्छे विषय और किताबें छूट जाती है |सुविख्यात भाषाविद साहित्यकार जय कुमार 'जलज' का शोध ग्रन्थ 'भाषा विज्ञान' पढ़ा तो यह विचार अधिक पुख्ता हुआ इसलिए आपके साथ साँझा किया |
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लगातार टालते रहने से अक्सर निर्णय बदल जाते है। अप्रत्याशित बदले हुए निर्णयों को स्वीकारना बेहद दुष्कर होता है।अपनी मानसिकता को दोनों परिस्थितियों के लिए तैयार रखे जो परिणाम आप देखना चाहते है और जो नहीं देखना चाहते है फिर किसी के भी जीवन में कुछ अप्रत्याशित घटित ही नहीं होगा । हम सबके भीतर एक भीड़ छिपी होती है जो हमें कुरेदती है,पथविमुख करने को उतावली रहतीहै,अक्सर लोग निर्णायक की भूमिका निभाना चाहते है किन्तु परिणामों के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं---शोभाजैन
गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019
सोमवार, 11 फ़रवरी 2019
रविवार, 13 जनवरी 2019
पृथ्वी के भूगोल और सूर्य की स्थिति के बदलाव का पर्व मकरसंक्रांति की सभी को सपरिवार शुभकामनायें माना जाता है आज से सूर्य धनु राशि को छोड़कर मकर राशि में प्रवेश करता है और सूर्य के उत्तरायण की गति प्रारंभ होती है। बहुत सी मान्यताओं से जुड़ा यह पर्व बदलाव के लिए भी हमें मानसिक और शारीरिक रूप से तैयार करता है | इससे जुड़ी पतंग उड़ाने की परम्परा जीवन को उत्सवी रूप में पूरी सकारात्मकता के साथ नई ऊँचाईयों पर ले जाने की प्रेरणा भी देती है | हमारे देश में आज के दिन गुड़ घी के साथ खिचड़ी खाने का रिवाज न सिर्फ पृथ्वी के भूगोल और सूर्य के बदलाव का एक होना है अपितु ह्रदय को भी मिठास के साथ एकसार करने का सन्देश है|
शनिवार, 27 अक्तूबर 2018
मानवीय संकेतकों की खोज है ........
अब प्रतिदिन सुबह साड़े सात से आठ बजे के मध्य 'सड़क की स्वच्छता' के जश्न का गीत गुनगुनाती नगर निगम की गाड़ी निकलती है| घर के बाहर का यह श्रव्य और दृश्य दिनचर्या का अब हिस्सा बन चुका है इत्तेफ़ाक से उसी वक़्त मेरे सामने प्रतिदिन अखबार के पन्ने होते है जिसमें मन की अस्वच्छता के साथ निर्ममता को ठीक उसी समय पढ़ती हूँ मेरे मन मस्तिष्क का अंतर्द्वंद तब प्रारंभ हो जाता है जब बाहर जीत का जश्न बज रहा है और भीतर से मानवता को को शर्मसार कर देने वाली ख़बरें पढ़ी जा रहीं हैं |सूचनाओं ने अब हमें सजग सावधान बनाना बंद कर दिया है | हम भारतीय जश्न को लम्बे समय तक जीते है और मौजूदा और भावी चुनोतियों, जिम्मेदारियों के प्रति लचीले हो जाते हो | मिडिया अब इतने शातिर हो चुके की लम्बे अरसे से उनके उपभोक्ता लक्ष्य या शिकार, हम स्वयं अब चलता फिरता पुर्जा बन गए है | अब हम सभी इनके आदि होते जा रहें है आदमी के निर्मम चरित्र का रोज एक उदाहरण हमारे सामने परोसा जा रहा है |ऐसा कुछ भी नहीं बचा यहाँ तक की प्रकृति और अन्य प्राणी भी नहीं जिसे अपने पन्नों पर कैद कर अखबार ने न बेचा हो | समकालीन समय में निरंतर विरल और क्षीण होती जा रही मानवता, मौजूदा परिदृश्य के प्रति प्रतिरोध पैदा करने की चेष्टा कर रही है इस आग्रह के साथ की इस विषय को शासन व्यवस्था(सरकार ) से न जोड़े क्योकि शासन व्यवस्था को राजनीतिक कार्यप्रणाली से फुर्सत ही नहीं | यह पूर्णतः 'संवेदशीलता' का विषय है और राजनीती का संवेदनशीलता से दूर -दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं |यह केवल प्रचार प्रसार का समय नहीं, हम केवल सूचनायें संप्रेषित कर रहें है जानलेवा हादसे और मरने वालों के आंकड़े अख़बार और चेनलों के लिए गडरिया बन चुके है | जिन्हें नाना प्रकार से छील कर मरोड़कर निचोड़ा जाता है और अगली सुबह नीरस छिलकों की तरह किसी कूड़ेदान में फेक दिया जाता है अगली 'जूसी स्टोरी' के लिए| गंभीर दायित्व बोध का निर्वहन केवल प्रचार प्रसार तक सीमित नहीं| युद्धस्तर पर परिणाम भी सामने आने चाहिए | एक जीत का जश्न गीत जीवन भर गाने से भावी पीढ़ी का गौरवान्वित इतिहास निर्मित नहीं होगा |बहस तभी सार्थक होती है जब सार्थक परिणाम निकलते है | पुरस्कारों की हड़बड़ी में तटस्थ भाव और गम्भीता से विमुख होते जा रहे, हमें घोषणाएं नहीं चाहियें, न ही मूल्यों पर प्रहार करने वाली सूचनाएं हमें निर्णायक मोड़ के साथ एक सार्थक सहज जीवन चाहिए जो मानवता से सराबोर हो | जिसमें मनुष्य, मनुष्य के भय से अकम्पित हो | मुक्तिबोध ने लिखा है ----मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ
विष से अप्रसन्न हूँ
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करन के लिए मेहतर चाहिए।
इस आलेख का उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं है किन्तु इस निर्ममता भरे समय में मानवीय संकेतों की खोज अवश्य है..
अब प्रतिदिन सुबह साड़े सात से आठ बजे के मध्य 'सड़क की स्वच्छता' के जश्न का गीत गुनगुनाती नगर निगम की गाड़ी निकलती है| घर के बाहर का यह श्रव्य और दृश्य दिनचर्या का अब हिस्सा बन चुका है इत्तेफ़ाक से उसी वक़्त मेरे सामने प्रतिदिन अखबार के पन्ने होते है जिसमें मन की अस्वच्छता के साथ निर्ममता को ठीक उसी समय पढ़ती हूँ मेरे मन मस्तिष्क का अंतर्द्वंद तब प्रारंभ हो जाता है जब बाहर जीत का जश्न बज रहा है और भीतर से मानवता को को शर्मसार कर देने वाली ख़बरें पढ़ी जा रहीं हैं |सूचनाओं ने अब हमें सजग सावधान बनाना बंद कर दिया है | हम भारतीय जश्न को लम्बे समय तक जीते है और मौजूदा और भावी चुनोतियों, जिम्मेदारियों के प्रति लचीले हो जाते हो | मिडिया अब इतने शातिर हो चुके की लम्बे अरसे से उनके उपभोक्ता लक्ष्य या शिकार, हम स्वयं अब चलता फिरता पुर्जा बन गए है | अब हम सभी इनके आदि होते जा रहें है आदमी के निर्मम चरित्र का रोज एक उदाहरण हमारे सामने परोसा जा रहा है |ऐसा कुछ भी नहीं बचा यहाँ तक की प्रकृति और अन्य प्राणी भी नहीं जिसे अपने पन्नों पर कैद कर अखबार ने न बेचा हो | समकालीन समय में निरंतर विरल और क्षीण होती जा रही मानवता, मौजूदा परिदृश्य के प्रति प्रतिरोध पैदा करने की चेष्टा कर रही है इस आग्रह के साथ की इस विषय को शासन व्यवस्था(सरकार ) से न जोड़े क्योकि शासन व्यवस्था को राजनीतिक कार्यप्रणाली से फुर्सत ही नहीं | यह पूर्णतः 'संवेदशीलता' का विषय है और राजनीती का संवेदनशीलता से दूर -दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं |यह केवल प्रचार प्रसार का समय नहीं, हम केवल सूचनायें संप्रेषित कर रहें है जानलेवा हादसे और मरने वालों के आंकड़े अख़बार और चेनलों के लिए गडरिया बन चुके है | जिन्हें नाना प्रकार से छील कर मरोड़कर निचोड़ा जाता है और अगली सुबह नीरस छिलकों की तरह किसी कूड़ेदान में फेक दिया जाता है अगली 'जूसी स्टोरी' के लिए| गंभीर दायित्व बोध का निर्वहन केवल प्रचार प्रसार तक सीमित नहीं| युद्धस्तर पर परिणाम भी सामने आने चाहिए | एक जीत का जश्न गीत जीवन भर गाने से भावी पीढ़ी का गौरवान्वित इतिहास निर्मित नहीं होगा |बहस तभी सार्थक होती है जब सार्थक परिणाम निकलते है | पुरस्कारों की हड़बड़ी में तटस्थ भाव और गम्भीता से विमुख होते जा रहे, हमें घोषणाएं नहीं चाहियें, न ही मूल्यों पर प्रहार करने वाली सूचनाएं हमें निर्णायक मोड़ के साथ एक सार्थक सहज जीवन चाहिए जो मानवता से सराबोर हो | जिसमें मनुष्य, मनुष्य के भय से अकम्पित हो | मुक्तिबोध ने लिखा है ----मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ
विष से अप्रसन्न हूँ
इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
पूरी दुनिया साफ करन के लिए मेहतर चाहिए।
इस आलेख का उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहत करना नहीं है किन्तु इस निर्ममता भरे समय में मानवीय संकेतों की खोज अवश्य है..
गुरुवार, 13 सितंबर 2018
अखंड
भारत की परिकल्पना को साकार करती एक भाषा के रूप में हिंदी की भूमिका आम आदमी के
सपने और हकीकत के बीच संतुलन बनाती हुई भाषा की है |थोडा संघर्ष अवश्य कर रही है | राज शक्ति और लोक
शक्ति का सामजस्य इसकी सुद्रणता निश्चित कर सकता है | हमें
नहीं भूलना चाहिए अंग्रेजी केवल एक भाषा का ज्ञान है इससे अधिक उसका अस्तित्व
हमारे लिए नहीं | अंग्रेजी की मानसिकता ने हिंदी के लिए थोड़ी
चुनोतियाँ बढ़ा दी है ऐसा हमें लगता है जबकि हिंदी की सबसे बड़ी ताकत लोकशक्ति
ही है वह अपने स्वभाव और बुनियाद को कभी
छोड़ नहीं सकती |आज हिंदी कई दृष्टियों से अन्तराष्ट्रीय स्तर
पर मौजूद है |भारत के बाहर भी व्यापक भू –भाग में फैली है फिर चाहे वो सूरीनाम हो
मारीशस ही क्यों न हो इसकी वजह एक मात्र है की अनुभूतियों और संवेदनाओं की अनुगूँज
हिंदी से ही संस्पर्श करती है प्रवासी भारतीय लेखिका पुष्पिता अवस्थी का लेखन(विशेषकर-संवेदना
की आद्रता ) उनके विश्व बंधुत्व से प्रेरित ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के भाव को
सम्प्रेषित करते है हिंदी की सर्वव्यापकता
में इस तरह लेखकों का जिक्र अवश्य होना चाहिए क्योकि वो बाहर रहकर स्वतंत्र भाव से
हिंदी के लिए समर्पित है हम भीतर रहकर
थोड़ा संकुचित है जिसका एक कारण निः संदेह शिक्षा के माध्यम में हिंदी के प्रति
उदासीनता भी है |बकौल गिरिश्वर मिश्र जी—‘’कुछ
ओपनिवेशिक परम्परा ने हिंदी को अयोग्य ठहरा उसके उपयोग पर प्रतिबन्ध कर दिया जिसके
उदाहरण के रूप में उन्होंने गुवाहाटी विश्वविद्यालय के शोध प्रबंध को अंग्रेजी में
ही स्वीकार करने की बात स्पष्ट की है |’’ भाषा के युग पुरुष के रूप में जाने जाते डॉ.रामविलास
शर्मा ने भाषा पर बहुत अधिक काम किया है उन्होंने अपनी पुस्तक ‘भारत की भाषा समस्या’
की भूमिका में इस विषय पर धारदार टिप्पणियां की है |भाषा के सन्दर्भ में वे कहते
है ----हिंदी भाषी आगरा,अवध,बिहार,मध्यप्रदेश,राजपूताना,पंजाब और देशी रियासतों
में हजारों की संख्या में उच्च शिक्षित,वकील,बैरिस्टर,डॉक्टर और प्रोफेसर आदि हैं
पर उनमें से कितने ऐसे है जो मात्रभाषा की सेवा के लिए उसके प्रचार प्रसार के लिए
सेवा कर रहें है ? विचारणीय है की हाई कौर्ट के सभी नोटिस सूचना-पत्र अंग्रेजी में
ही प्राप्त होते है |ऐसा न करने का कारण केवल यही है की उन्हें हिंदी लिखना नहीं
आता या वे हिंदी का उच्च शिक्षा पुस्तकों के भीतर प्राप्त नहीं पाते | जिस भाषा को
लोग अपने पैदा होने से लेकर अपने जीवन भर बोलते है लेकिन आधिकारिक रूप से दूसरी भाषा पर निर्भर रहना पड़े तो कही न कही उस देश के
विकास में उस देश की अपनाई गयी भाषा ही सबसे बड़ी बाधक बनती है| हिंदी भारत की राजभाषा,संपर्क भाषा,राष्ट्र भाषा से आगे बढ़ते हुए विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है | हिंदी की वर्तमान स्थिति में कहीं न कहीं वैश्वीकरण का भी योगदान है |
हालाँकि विश्लेषक वैश्वीकरण को मूलतः एक आर्थिक संकल्पना मानते है |
किन्तु इससे जुड़े सभी पहलुओं (व्यापार, निवेश, राजनितिक और
सांस्कृतिक व्यवस्था )में भाषा की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है |अंग्रेजी,भाषा जिसे
समझने वाले कुल दस प्रतिशत भारतीय है तो क्या हम इस बात पर विचार नहीं कर सकते कि
इसके बिना काम कैसे चलाया जाय |किसी भी भाषा का ज्ञान होना बुरा नहीं होता पर हमें
पीढ़ियों को अपनी विरासत सौपनी है |हिंदी हमारी अपनी है |समर्थ भारत के लिए आर्थिक
विकास के साथ भाषा नियोजन भी उतना ही
जरुरी है |बकौल वरिष्ठ पत्रकार जय प्रकाश चौकसे -- इसे केवल ‘हिंदी दिवस’ की रस्मअदायगी
के रूप में न लें| भाषा परिवार के राष्ट्रीय व्यवहार में हिंदी को ‘महाभाषा’ के
रूप में अपनायें |||हिंदी जयतु ||-शोभा जैन
मंगलवार, 4 सितंबर 2018
हर इंसान,हर हालात,हर क्षण,से हम 'सीखते' है,कभी -कभी 'सबक' भी लेते है| दरअसल में 'सीख' के पीछे 'छिपे' अनुभवी शब्दों की गूंज हमारा मार्ग प्रशस्त करती है | वे शब्द जो हमने कहीं सुने या हमारे सामने दोहराएँ जाते है या जिनके संपर्क में हम बार -बार आते है | अक्सर 'पाठशाला' में, हम उन्हें सुनने के साथ आत्मसात करने का प्रयास भी करते है | 'पाठशाला' कोई भी हो सकती है विद्यालय के अतिरिक्त |जीवन बहुत आसन लगने लगता है जब एसी कोई शख्सियत हमारे जीवन में होती है जिनके पास 'समस्याओं' के साथ उनके 'समाधान' भी होते है, जो केवल 'निर्णय' नहीं सुनाते बल्कि उनके 'परिणामों' में भी हमारे साथ खड़े होते है जितने सख्त उतने कोमल भी |जीवन के एसी सभी महत्वपूर्ण शख्सियत को एक 'शिक्षक' के रूप में संबोधित करते हुए मेरी आदरांजलि || शत -शत नमन || 'शिक्षक दिवस' की अशेष शुभकामनाएँ ---शोभा जैन
रविवार, 29 जुलाई 2018
ॐ, तत् और सत् का स्वरूप......
ॐ, तत् और सत् – ऐसा तीन प्रकार का नाम ‘ ब्रह्मण: निर्देश: स्मृत:’ – ब्रह्म का निर्देश करता है, स्मृति दिलाता है, संकेत करता है और ब्रह्म का परिचायक है। उसी से ‘पुरा’ – पूर्व में (आरंभ में) ब्राह्मण, वेद और यज्ञादि रचे गये हैं। अर्थात् ब्राह्मण, यज्ञ और वेद ओम् से पैदा होते हैं। ये योगजन्य हैं। ओम् के सतत चिंतन से ही इनकी उत्पत्ति है, और कोई तरीका नहीं है।
इसलिये ब्रह्म का कथन करनेवाले पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तप – क्रियाएँ निरंतर ‘ओम्’ इस नाम का उच्चारण करके ही की जाती हैं, जिससे उस ब्रह्म का स्मरण हो जाय। अब तत् शब्द का प्रयोग बताते हैं-
तत् अर्थात् वह (परमात्मा) ही सर्वत्र है, इस भाव से फल को न चाहकर शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट नाना प्रकार की यज्ञ, तप और दान की क्रियाएँ परम कल्याण की इच्छा करनेवाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं। तत् शब्द परमात्मा के प्रति समर्पणसूचक है। अर्थात् जप तो ओम् का करें तथा यज्ञ, दान और तप की क्रियाएँ उस पर निर्भर होकर करें। अब सत् के प्रयोग का स्थल बताते हैं-
और सत्; योगेश्वर ने बताया कि सत् क्या है? गीता के आरंभ में ही अर्जुन ने प्रश्न खड़ा किया कि कुलधर्म ही शाश्वत है, सत्य है, तो श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन ! तुझे यह अज्ञान कहाँ से उत्पन्न हुआ? सत् वस्तु का तीनों कालोँ में कभी अभाव नहीं होता, उसे मिटाया नहीं जा सकता और असत् वस्तु का तीनों कालोँ में अस्तित्व नहीं है, उसे रोका नहीं जा सकता। वस्तुतः वह कौन- सी वस्तु है, जिसका तीनों कालोँ में अभाव नहीं है? और वह असत् वस्तु है क्या, जिसका अस्तित्व नहीं है? तो बताया- यह आत्मा ही सत्य है और भूतादिकोँ के समस्त शरीर नाशवान् हैं। आत्मा सनातन है, अव्यक्त है, शाश्वत और अमृतस्वरूप है- यही परमसत्य है।
यहाँ कहते हैं, ‘सत्’ ऐसे परमात्मा का यह नाम ‘सद्भावे’ – सत्य के प्रति भाव में और साधुभाव में प्रयोग किया जाता है और हे पार्थ ! जब नियत कर्म सांगोपांग भली प्रकार होने लगे, तब सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है। सत् का अर्थ यह नहीं है कि यह वस्तुएँ हमारी हैं। जब शरीर ही हमारा नहीं है, तो इसके उपभोग में आनेवाली वस्तुएँ हमारी कब हैं। यह सत् नहीं है। सत् का प्रयोग केवल एक दिशा में किया जाता है- सद्भाव में। आत्मा ही परमसत्य है- इस सत्य के प्रति भाव हो, उसे साधने के लिये साधुभाव हो और उसकी प्राप्ति करानेवाला कर्म प्रशस्त ढंग से होने लगे, वहीं सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसी पर योगेश्वर अग्रेतर कहते हैं-
यज्ञ, तप और दान को करने में जो स्थिति मिलती है, वह भी सत् है- ऐसा कहा जाता है। ‘तदर्थीयम्’ – उस परमात्मा की प्राप्ति के लिये किया हुआ कर्म ही सत् है, ऐसा कहा जाता है। अर्थात् उस परमात्मा की प्राप्तिवाला कर्म ही सत् है। यज्ञ, दान, तप तो इस कर्म के पूरक हैं। अंत में निर्णय देते हुए कहते हैं कि इन सबके लिये श्रद्धा आवश्यक है।
हे पार्थ ! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है, वह सब असत् है- ऐसा कहा जाता है। वह न तो इस लोक में और न परलोक में ही लाभदायक है। अतः समर्पण के साथ श्रद्धा नितांत आवश्यक है।
--विविध स्त्रोतों से ......
ॐ, तत् और सत् – ऐसा तीन प्रकार का नाम ‘ ब्रह्मण: निर्देश: स्मृत:’ – ब्रह्म का निर्देश करता है, स्मृति दिलाता है, संकेत करता है और ब्रह्म का परिचायक है। उसी से ‘पुरा’ – पूर्व में (आरंभ में) ब्राह्मण, वेद और यज्ञादि रचे गये हैं। अर्थात् ब्राह्मण, यज्ञ और वेद ओम् से पैदा होते हैं। ये योगजन्य हैं। ओम् के सतत चिंतन से ही इनकी उत्पत्ति है, और कोई तरीका नहीं है।
इसलिये ब्रह्म का कथन करनेवाले पुरुषों की शास्त्रविधि से नियत की हुई यज्ञ, दान और तप – क्रियाएँ निरंतर ‘ओम्’ इस नाम का उच्चारण करके ही की जाती हैं, जिससे उस ब्रह्म का स्मरण हो जाय। अब तत् शब्द का प्रयोग बताते हैं-
तत् अर्थात् वह (परमात्मा) ही सर्वत्र है, इस भाव से फल को न चाहकर शास्त्र द्वारा निर्दिष्ट नाना प्रकार की यज्ञ, तप और दान की क्रियाएँ परम कल्याण की इच्छा करनेवाले पुरुषों द्वारा की जाती हैं। तत् शब्द परमात्मा के प्रति समर्पणसूचक है। अर्थात् जप तो ओम् का करें तथा यज्ञ, दान और तप की क्रियाएँ उस पर निर्भर होकर करें। अब सत् के प्रयोग का स्थल बताते हैं-
और सत्; योगेश्वर ने बताया कि सत् क्या है? गीता के आरंभ में ही अर्जुन ने प्रश्न खड़ा किया कि कुलधर्म ही शाश्वत है, सत्य है, तो श्रीकृष्ण ने कहा- अर्जुन ! तुझे यह अज्ञान कहाँ से उत्पन्न हुआ? सत् वस्तु का तीनों कालोँ में कभी अभाव नहीं होता, उसे मिटाया नहीं जा सकता और असत् वस्तु का तीनों कालोँ में अस्तित्व नहीं है, उसे रोका नहीं जा सकता। वस्तुतः वह कौन- सी वस्तु है, जिसका तीनों कालोँ में अभाव नहीं है? और वह असत् वस्तु है क्या, जिसका अस्तित्व नहीं है? तो बताया- यह आत्मा ही सत्य है और भूतादिकोँ के समस्त शरीर नाशवान् हैं। आत्मा सनातन है, अव्यक्त है, शाश्वत और अमृतस्वरूप है- यही परमसत्य है।
यहाँ कहते हैं, ‘सत्’ ऐसे परमात्मा का यह नाम ‘सद्भावे’ – सत्य के प्रति भाव में और साधुभाव में प्रयोग किया जाता है और हे पार्थ ! जब नियत कर्म सांगोपांग भली प्रकार होने लगे, तब सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है। सत् का अर्थ यह नहीं है कि यह वस्तुएँ हमारी हैं। जब शरीर ही हमारा नहीं है, तो इसके उपभोग में आनेवाली वस्तुएँ हमारी कब हैं। यह सत् नहीं है। सत् का प्रयोग केवल एक दिशा में किया जाता है- सद्भाव में। आत्मा ही परमसत्य है- इस सत्य के प्रति भाव हो, उसे साधने के लिये साधुभाव हो और उसकी प्राप्ति करानेवाला कर्म प्रशस्त ढंग से होने लगे, वहीं सत् शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसी पर योगेश्वर अग्रेतर कहते हैं-
यज्ञ, तप और दान को करने में जो स्थिति मिलती है, वह भी सत् है- ऐसा कहा जाता है। ‘तदर्थीयम्’ – उस परमात्मा की प्राप्ति के लिये किया हुआ कर्म ही सत् है, ऐसा कहा जाता है। अर्थात् उस परमात्मा की प्राप्तिवाला कर्म ही सत् है। यज्ञ, दान, तप तो इस कर्म के पूरक हैं। अंत में निर्णय देते हुए कहते हैं कि इन सबके लिये श्रद्धा आवश्यक है।
हे पार्थ ! बिना श्रद्धा के किया हुआ हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है, वह सब असत् है- ऐसा कहा जाता है। वह न तो इस लोक में और न परलोक में ही लाभदायक है। अतः समर्पण के साथ श्रद्धा नितांत आवश्यक है।
--विविध स्त्रोतों से ......
बुधवार, 11 जुलाई 2018
भारतीय किसान के परिप्रेक्ष्य में
पीढ़ा के स्वर
नहीं चाहिए राज सिंहासन
ना वैभवी स्वर्ण आडम्बर
एक कलम और कुछ अक्षर
एक बूंद स्याही की दे दो
लिखना चाहूँ मैं पीढ़ा के स्वर
पीढ़ा जो अपनी नहीं है
ओरो के दुःख में पली है
संचित कर अश्रु के बादल
हल उसका फिर भी कोई न हल
एक बूंद स्याही की दे दो
लिखना चाहूँ मैं पीढ़ा के स्वर
दीपक सा जलता अन्तस्थल
रुधिर श्वेत हुआ जाता
परिश्रम जिसका जर्जर
तन को जिसके धूल ढांकती
मिट्टी सा जिसका मन
सबका सुख धन धान्य भरा
मेरा दुःख भी निर्धन
एक बूंद स्याही की दे दो
लिखना चाहूँ मैं पीढ़ा के स्वर
जीवन पथ दुर्गम तल है
मैं पंछी पर कटे पर हैं
मेरा उज्ज्वल भविष्य दरबदर
एक बूंद स्याही की दे दो
लिखना चाहूँ मैं पीढ़ा के स्वर
ना वैभवी स्वर्ण आडम्बर
एक कलम और कुछ अक्षर
एक बूंद स्याही की दे दो
लिखना चाहूँ मैं पीढ़ा के स्वर
पीढ़ा जो अपनी नहीं है
ओरो के दुःख में पली है
संचित कर अश्रु के बादल
हल उसका फिर भी कोई न हल
एक बूंद स्याही की दे दो
लिखना चाहूँ मैं पीढ़ा के स्वर
दीपक सा जलता अन्तस्थल
रुधिर श्वेत हुआ जाता
परिश्रम जिसका जर्जर
तन को जिसके धूल ढांकती
मिट्टी सा जिसका मन
सबका सुख धन धान्य भरा
मेरा दुःख भी निर्धन
एक बूंद स्याही की दे दो
लिखना चाहूँ मैं पीढ़ा के स्वर
जीवन पथ दुर्गम तल है
मैं पंछी पर कटे पर हैं
मेरा उज्ज्वल भविष्य दरबदर
एक बूंद स्याही की दे दो
लिखना चाहूँ मैं पीढ़ा के स्वर
-------शोभा जैन
शनिवार, 9 जून 2018
हम प्रति क्षण दो समानान्तर जीवन जी रहे होते हैं – एक, जो हमारे बाहर दुनियावी कोलाहल बनकर तैर रहा है, दूसरा – जो हमारे भीतर कुलबुला रहा होता है। जब इन दोनों जीवनों के मध्य असमंजस की लहरें उफान लेने लगती हैं, तो सहन करने की एक निश्चित सीमा के उपरान्त विद्रोह का अंकुर फूटता है। इस अंकुर से फूटता है जीवन का वास्तविक अर्थ और स्वयं के अस्तित्व का कारण।---शोभा जैन
हम जिस 'चरित्र' की बात करते है वो हमारे ही व्यक्तित्व का एक हिस्सा है 'चरित्र' का निर्माण परिस्थितयाँ करती है, याद रहे-- परिस्थितियां सदैव परिवर्तनशील है किन्तु व्यक्तित्व का निर्माण स्वभाव एवं आदतें और मानसिकता |अक्सर समाज 'चरित्र' का डंका बजाता है किन्तु 'व्यक्तित्व विकास' की बात कोई नहीं करता ----- शोभा जैन
इस तरह की स्मृति जो हमारे आज को अधिक सार्थक, समृद्ध और संवेदनशील बना दे। अपने जहन में रखना चाहिए |हमारी स्मृति का एक सिरा हमारे वर्तमान से बंधा होता है, तो दूसरा अतीत से। अतीत और वर्तमान के समय सरिता के बीच एक पुल है, जो दोनों किनारों के बीच संवाद का माध्यम बनता है किन्तु अक्सर उस सम्वाद को विवादित रूप दे दिया जाता है ।अतीत और वर्तमान में से किसी एक के साथ चलना है और किसी एक को साथ ले के चलना|क्योकि अतीत विस्म्रत नहीं होता किन्तु देता बहुत कुछ है सुधार के साथ वर्तमान के स्रजन के लिए | ---शोभा जैन
हम प्रति क्षण दो समानान्तर जीवन जी रहे होते हैं – एक, जो हमारे बाहर दुनियावी कोलाहल बनकर तैर रहा है, दूसरा – जो हमारे भीतर कुलबुला रहा होता है। जब इन दोनों जीवनों के मध्य असमंजस की लहरें उफान लेने लगती हैं, तो सहन करने की एक निश्चित सीमा के उपरान्त विद्रोह का अंकुर फूटता है। इस अंकुर से फूटता है जीवन का वास्तविक अर्थ और स्वयं के अस्तित्व का कारण।---शोभा जैन
समय के साथ- साथ हमारी किन चीजों का विकास हो रहा है इसका पुनरावलोकन होते रहना चाहिए कभी- कभीं सिर्फ शरीर का विकास होता है बुद्धि का नहीं, उम्र का विकास होता है अनुभव का नहीं, डिग्रियों की लम्बी कतारे किन्तु ज्ञान का नाम नहीं, विचारों के आडम्बर बहुत किन्तु उनमे तर्क नहीं, जीवन बहुत जीने को पर अनुशासन नहीं, आधा अधूरा विकास नहीं कहलाता 'संतुलित विकास' का पुनरावलोकन अवश्य होना चाहिए| कहने का अर्थ समयानुसार स्वयं को अपडेट करते रहना | क्योकि मेरा ऐसा मानना है ---'समय- असमय अपने भीतर से कुछ घटाना कुछ बढ़ाना अति आवश्यक हो जाता है |' --शोभा जैन
दुनिया में काम करने के लिए आदमी को अपने ही भीतर मरना पड़ता है. आदमी इस दुनिया में सिर्फ़ ख़ुश होने नहीं आया है. वह ऐसे ही ईमानदार बनने को भी नहीं आया है. वह पूरी मानवता के लिए महान चीज़ें बनाने के लिए आया है. वह उदारता प्राप्त करने को आया है. वह उस बेहूदगी को पार करने आया है जिस में ज़्यादातर लोगों का अस्तित्व घिसटता रहता है..
.- (विन्सेन्ट वान गॉग की जीवनी- 'लस्ट फ़ॉर लाइफ़' से)
सोमवार, 28 मई 2018
रविवार, 20 मई 2018
बुधवार, 16 मई 2018
शनिवार, 12 मई 2018
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